India में Education का बदलता परिदृश्य: Government से Private Schools की और

Indian School

देश में Education में हुए तमाम बदलावों और नीतियों के दस्तावेजों में सुधार के बावजूद शिक्षा का वास्तविक स्वरूप एक नई दिशा में बढ़ता हुआ नजर आता है। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का आदर्श नारा, यानी अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ने का संकल्प, अब शिक्षा के नाम पर एक नए ढर्रे पर चल पड़ा है। इसमें शिक्षा का उद्देश्य अब ज्ञान से अधिक व्यापार बनता दिख रहा है। सरकारों के बदलने के साथ शिक्षा नीति के दस्तावेज़ चाहे जैसे भी बदलें, लेकिन भारत की एक अलिखित शिक्षा नीति सदैव अटल रही है। यह नीति है – ‘सरकारी से प्राइवेट की ओर’, ‘मिशन से व्यवसाय की ओर’। हाल ही में जारी किए गए राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण 2022-23 के आंकड़े इस बदलते रुझान की एक स्पष्ट तस्वीर पेश करते हैं। सर्वेक्षण के अनुसार, देश के 6 से 10 साल के करीब 66.7 प्रतिशत बच्चे अभी भी प्राथमिक शिक्षा के लिए सरकारी स्कूलों में नामांकित हैं। वहीं, शेष 33 प्रतिशत अब प्राइवेट स्कूलों की ओर रुख कर चुके हैं। यह बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि महामारी के दौरान आर्थिक कठिनाइयों के चलते बच्चों का सरकारी स्कूलों की ओर रुख बढ़ा था। लेकिन अब एक बार फिर से परिवार प्राइवेट स्कूलों की ओर लौट रहे हैं।

शहरी और ग्रामीण विभाजन में शिक्षा की खाई | Urban and Rural Divide in Education

शहरी और ग्रामीण इलाकों के बीच शिक्षा के स्तर पर खाई दिन-ब-दिन गहरी होती जा रही है। शहरी भारत में केवल 37 प्रतिशत बच्चे प्राथमिक शिक्षा के लिए सरकारी स्कूलों में नामांकित हैं। वहीं, ग्रामीण क्षेत्रों में यह आँकड़ा लगभग 77 प्रतिशत है। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में भी अब एक बड़ा तबका प्राइवेट स्कूलों का सहारा ले रहा है। यह शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण की एक बड़ी मिसाल है। गांवों में अब 23 प्रतिशत बच्चे प्राइवेट स्कूलों में दाखिला ले रहे हैं। पूर्वी भारत के कुछ राज्यों जैसे असम, त्रिपुरा, बंगाल, ओडिशा, बिहार और छत्तीसगढ़ में अधिकांश बच्चे अब भी सरकारी स्कूलों में ही पढ़ते हैं। लेकिन जिन राज्यों में आर्थिक स्थिति थोड़ी बेहतर हुई है, वहाँ सरकारी स्कूलों में नामांकन तेजी से घटा है। हरियाणा, केरल, तमिलनाडु और तेलंगाना जैसे राज्यों में अधिकतर बच्चों ने अब प्राइवेट स्कूलों में दाखिला लेना शुरू कर दिया है। इससे इन क्षेत्रों में सरकारी स्कूलों के अस्तित्व पर सवाल खड़े हो रहे हैं।

Private Schools की ओर बढ़ता रुझान: आर्थिक बोझ के बावजूद बढ़ती उम्मीदें

इस रुझान के पीछे केवल बढ़ती आमदनी नहीं है, बल्कि शिक्षा को लेकर बदलती मानसिकता भी जिम्मेदार है। कई गरीब और मध्यम वर्गीय परिवार अब यह समझने लगे हैं कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा ही उनके बच्चों के भविष्य को संवार सकती है। इसी कारण वे अपने खर्चों में कटौती कर प्राइवेट स्कूल की भारी फीस भरने के लिए तैयार हैं। आंकड़े बताते हैं कि 2017-18 में हुए सर्वेक्षण में प्राथमिक स्तर पर प्राइवेट स्कूल में एक बच्चे पर मासिक खर्च औसतन 1,200 रुपये था। वहीं, सरकारी स्कूलों में यह खर्च सिर्फ 100 रुपये प्रतिमाह था। माध्यमिक स्तर पर यह खर्च 2,000 रुपये प्रति छात्र हो गया, जबकि सरकारी स्कूल में यह केवल 500 रुपये था। पिछले सात वर्षों में इन खर्चों में लगभग डेढ़ गुना वृद्धि हो चुकी है। छोटे शहरों में कई परिवारों को अपनी मासिक आय का दसवां हिस्सा केवल शिक्षा पर खर्च करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।

Quality of Education: सरकारी और प्राइवेट स्कूल दोनों में चुनौतीपूर्ण हालात

शिक्षा पर बढ़ते खर्च के बावजूद, इसकी गुणवत्ता पर चिंताजनक हालात बने हुए हैं। गैर-सरकारी संगठन प्रथम द्वारा प्रकाशित ‘असर’ रिपोर्ट 2022 के अनुसार, ग्रामीण प्राइवेट स्कूलों के 3 कक्षा के दो-तिहाई बच्चे अपनी ही कक्षा की किताब से सामान्य पाठ पढ़ने में असमर्थ रहे। कक्षा 5 के छात्रों में से 43 प्रतिशत बच्चों को कक्षा 2 की किताब का सरल पाठ पढ़ने में परेशानी हुई। यही स्थिति गणित की शिक्षा में भी देखी गई, जहाँ अधिकांश छात्र सरल जोड़-घटाव और भाग के सवालों में असफल रहे। अंग्रेजी भाषा की पढ़ाई के मामले में भी हालात संतोषजनक नहीं हैं। ग्रामीण प्राइवेट स्कूलों में कक्षा 5 के केवल 47 प्रतिशत छात्र ही एक सरल अंग्रेजी वाक्य पढ़ सकते हैं। उनमें से मात्र 29 प्रतिशत उसका सही अर्थ समझ पाते हैं। कक्षा 8 में भी यह आंकड़ा आश्चर्यजनक रूप से कम है। देश में बढ़ते निजीकरण के कारण सरकारी स्कूलों की हालत खराब होती जा रही है। यह असमानता शिक्षा के स्तर पर बढ़ती खाई का संकेत देती है। संविधान में सभी को शिक्षा का अधिकार दिया गया है, लेकिन यह अधिकार आज एक क्रूर विडंबना बन गया है। निजी शिक्षा संस्थानों के बढ़ते दबदबे ने शिक्षा को एक लाभ का व्यापार बना दिया है। अब शिक्षा का आदर्श केवल एक दिखावा बन गया है। यह समय है जब शिक्षा नीति में सार्थक सुधार की आवश्यकता को गंभीरता से समझा जाए। इससे शिक्षा के क्षेत्र में समानता लाने का सपना साकार हो सके और देश के हर बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल सके।

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