25 जून 2025 को Emergency के 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं। Emergency के दौरान कई प्रमुख साहित्यकारों ने सरकार का सक्रिय विरोध किया और इसके चलते उन्हें जेल तक जाना पड़ा। इनमें प्रसिद्ध कवि गिरधर राठी और नागार्जुन, सुविख्यात समालोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी, इंदुमती केलकर, तथा समाजवादी लेखक डॉ. रघुवंश जैसे लोग शामिल थे। आपातकाल के विषय पर भारत की विभिन्न भाषाओं में कहानियाँ, कवितायें और उपन्यास लिखे गए।
महाराष्ट्र में Emergency के समय मराठी साहित्य सम्मेलन की तैयारियाँ चल रही थीं। इस सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए प्रख्यात नारीवादी, समाजवादी और धार्मिक विचारक दुर्गा भागवत को चुना गया। जब उनका स्वागत समारोह दादर, मुंबई के मराठी ग्रंथ संग्रहालय में हुआ, तो मात्र 300 की क्षमता वाले सभागार में हजारों लोग उमड़ पड़े। अपने भाषण में दुर्गा भागवत ने साहसपूर्वक Emergency और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाए गए प्रतिबंधों की कड़ी निंदा की। उनका यह साहसी कदम देशभर के लेखकों और कलाकारों के लिए प्रेरणा बन गया। इससे स्पष्ट होता है कि साहित्यिक जगत ने Emergency का कितनी दृढ़ता से विरोध किया।
Emergency के विरोध में ‘त्रिकाल संध्या’
गांधीवादी हिंदी कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने Emergency के विरोध में प्रतिदिन सुबह, दोपहर और शाम तीन बार कविताएँ लिखने का संकल्प लिया, जिसे उन्होंने प्रायः निभाया। इन कविताओं को बाद में ‘त्रिकाल संध्या’ नामक संग्रह में संकलित किया गया। इस संग्रह की पहली कविता ही Emergency के योजनाकारों पर तीखा व्यंग्य है।:
बहुत नहीं थे, सिर्फ़ चार कौए थे काले
उन्होंने ये तय किया कि सारे उड़ने वाले।
उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खाएँ और गाएँ
वे जिसको त्योहार कहें, सब उसे मनाएँ।
कभी-कभी जादू हो जाता है दुनिया में,
दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिआ में।
ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गए,
इनके नौकर चील, गरुड़ और बाज़ हो गए।
आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है,
यह दिन कवि का नहीं, चार कौओं का दिन है।
दुष्यंत कुमार Emergency के दौरान !
हिंदी के जनकवियों में अग्रणी, दुष्यंत कुमार ने आपातकाल के दौरान अपनी काव्य-भाषा को प्रतिरोध के हथियार के रूप में प्रयोग किया। उन्होंने लिखा:
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
एक अन्य कविता में उन्होंने लिखा:
इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है
एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।
और एक और प्रभावशाली पंक्तियाँ:
एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
आज शायर ये तमाशा देखकर हैरान है
एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या यूँ कहो
इस अंधेरी कोठरी में एक रोशनदान है
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।
इस कविता की प्रतीकात्मक व्याख्या जयप्रकाश नारायण के रूपक रूप में की गई।
Emergency के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी
Emergency के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने कारावास को काव्यात्मक प्रतिरोध में बदल दिया। उन्होंने जेल की कोठरी से “कैदी कविराय की कुंडलियाँ” नामक व्यंग्यपूर्ण कविता-संग्रह की रचना की, जिसमें उन्होंने तानाशाही दमन और लोकतांत्रिक मूल्यों के हनन की तीव्र आलोचना की। विनोबा भावे ने आपातकाल को “अनुशासन पर्व” कहा था। इसके उत्तर में वाजपेयी ने लिखा:
अनुशासन के नाम पर अनुशासन का खून
भंग कर दिया संघ को, कैसा चढ़ा जुनून
कैसा चढ़ा जुनून, मातृपूजा प्रतिबंधित
कुटिल कर रहे केशव-कुल की कीर्ति कलंकित
कह कैदी कविराय, तोड़ क़ानूनी कारा
गूँजेगा भारत माता की जय का नारा।
वाजपेयी ने अपनी रचनाओं में आपातकाल की विडंबनाओं और अन्यायों को उजागर किया और अत्याचार के विरुद्ध निर्भीक काव्यात्मक प्रतिरोध प्रस्तुत किया। जब कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने कहा, “इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा”, तब वाजपेयी ने व्यंग्यपूर्ण कविता में इसका उत्तर दिया,
इंदिरा-इंडिया एक है : इति बरुआ महाराज
अक़ल घास चरने गई, चमचों के सरताज
चमचों के सरताज, किया अपमानित भारत
एक मृत्यु के लिए, कलंकित भूत-भविष्यत
कह कैदी कविराय, स्वर्ग से जो महान है
कौन भला उस भारत माता के समान है?
इन पंक्तियों में वाजपेयी का साहस और कठिन समय में कविता के माध्यम से प्रतिरोध करने की उनकी विलक्षण क्षमता स्पष्ट है।
जनकवि नागार्जुन Emergency के दौरान
जनकवि नागार्जुन ने इंदिरा गांधी को संबोधित करते हुए याद दिलाया,
इंदु जी, इंदु जी, क्या हुआ आपको?
सत्ता की मस्ती में
भूल गईं बाप को?
उन्होंने यहीं नहीं रोका। एक अन्य तीखे व्यंग्य में लिखा,
खूब तनी हो, खूब अड़ी हो, खूब लड़ी हो
प्रजातंत्र को कौन पूछता, तुम्हीं बड़ी हो
डर के मारे न्यायपालिका काँप गई है
वो बेचारी अगली गतिविधि भाँप गई है
देश बड़ा है, लोकतंत्र है सिक्का खोटा
तुम्हीं बड़ी हो, संविधान है तुम से छोटा।
अन्य कवि और लेखक Emergency के दौरान
धर्मयुग के संपादक और प्रसिद्ध लेखक-कवि धर्मवीर भारती ने आपातकाल के दौरान “मुनादी” नामक कविता लिखी। फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने “आपातकाल” शीर्षक कविता में अस्पताल का दृश्य एक रूपक के रूप में प्रस्तुत किया:
आपातकाल-वार्ड की ट्रॉलियाँ
हड़-हड़-भड़-भड़ करती
ऑपरेशन थियेटर से निकलती हैं –
आपातकाल!
रघुवीर सहाय ने भय और नियंत्रण को व्यंग्य के माध्यम से प्रस्तुत किया:
हँसो, तुम पर निगाह रखी जा रही है
हँसो, अपने पर न हँसना क्योंकि उसकी कड़वाहट
पकड़ ली जाएगी और तुम मारे जाओगे
ऐसे हँसो कि बहुत ख़ुश न मालूम हो
वरना शक होगा कि यह शख्स शर्म में शामिल नहीं
और मारे जाओगे।
उसी तरह, गद्य साहित्य ने भी आपातकाल के विरोध की रचनाएँ रची गयीं। हरिशंकर परसाई ने 1974 से 1976 के बीच “कबिरा खड़ा बाज़ार में” नामक स्तंभ सारिका में लिखा। इस व्यंग्य स्तंभ में उन्होंने एक काल्पनिक साक्षात्कार शैली अपनाई जिसमें मध्यकालीन संत कवि कबीर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय हस्तियों से संवाद करते थे। जून 1975 में आपातकाल की घोषणा के बाद, बाबू जगजीवन राम के साथ एक काल्पनिक साक्षात्कार छपा, जिसमें जगजीवन राम कहते हैं: “अगर तय हो जाए कि जयप्रकाश नारायण सरकार बनाएँगे, तो मैं उनका साथ दूँगा।” इस लेख के अंशों को सेंसर कर काले रंग से ढकना पड़ा। विडंबना यह कि लगभग डेढ़ वर्ष बाद जगजीवन राम ने वास्तव में कांग्रेस छोड़ दी और जयप्रकाश नारायण के साथ हो लिए।
सलमान रुश्दी ने अपने उपन्यास “मिडनाइट्स चिल्ड्रेन” में आपातकाल को “उन्नीस महीने लंबी रात” कहा और इसे भारतीय लोकतंत्र एवं स्वतंत्रता के लिए एक गहरे संकट के रूप में चित्रित किया। नयनतारा सहगल, जो नेहरू-गांधी परिवार की सदस्य थीं (जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित की पुत्री), ने अपने उपन्यास “रिच लाइक अस” में आपातकाल का प्रत्यक्ष और प्रभावशाली चित्रण किया। यह उपन्यास 1975 में घोषित आपातकाल की पृष्ठभूमि में आधारित है और सत्तारूढ़ सरकार की तानाशाही और असंवैधानिक कार्रवाइयों का पर्दाफाश करता है। इसके लिए उन्हें 1986 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।
मलयालम लेखक ओ.वी. विजयन ने अपने उपन्यास “धर्मपुराणम” में आपातकाल की आलोचना की। यह उपन्यास एक तीखा राजनीतिक व्यंग्य है जो दिल्ली का रूपक बनाकर धर्मपुरी नामक काल्पनिक स्थान के माध्यम से तत्कालीन शासन की नीतियों की तीखी आलोचना करता है। हिंदी-उर्दू के लेखक राही मासूम रज़ा ने अपने उपन्यास “कतरा-बी-आरज़ू” में आपातकाल की आलोचना की। यह उपन्यास पूर्व-आपातकालीन समय से शुरू होकर जनता पार्टी के उदय तक की कहानी को बयान करता है। यह एक मोहल्ले की कहानी होते हुए भी पूरे देश की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति का रूपक बन जाती है।
शशि थरूर ने अपने उपन्यास “द ग्रेट इंडियन नॉवेल” (1989) में आपातकाल को रूपकात्मक रूप से “दी सीज़” कहा। उन्होंने “ट्वेंटी-टू मंथ्स इन द लाइफ ऑफ़ अ डॉग” नामक व्यंग्य नाटक भी लिखा, जो बाद में “द फाइव-डॉलर स्माइल” नामक कहानी-संग्रह में छपा। कमलेश्वर ने अपनी लघुकथा “लाश” में लोकतंत्र की हत्या को दर्शाया। उन्होंने लिखा: “पूरा शहर स्तब्ध था। सौभाग्य से इतने बड़े हादसे में केवल एक लाश गिरी थी। न गोली लगी थी, न घाव था। न वो मुख्यमंत्री की थी, न विरोधी नेता कांतिलाल की।”
केवल सूद ने अपनी प्रतीकात्मक कथा “एक थी रानी” में प्रधानमंत्री की नीतियों का व्यंग्य किया, “एक जादुई छड़ी से रानी ने देश से सारी गरीबी मिटा दी। राजधानी स्वप्नलोक बन गई। रानी और उसके दरबारी फुर्सत की बांसुरी बजाने लगे, गरीबों का प्रवेश वर्जित कर दिया गया।”
रामदरश मिश्र की कहानी “मुर्दा मैदान”, जो कादंबिनी के जुलाई 1975 अंक में प्रकाशित हुई, प्रधानमंत्री के “गरीबी हटाओ” नारे की खोखली सच्चाई को उजागर करती है। नरेंद्र कोहली ने अपनी कहानी “लोककथा में गतिरुद्ध” (संग्रह – आधुनिक लड़की की पीड़ा) में परिवार नियोजन नीति पर तीखा व्यंग्य करते हुए लिखा, “सरकार ने परिवार नियोजन के नाम पर एक विभाग बना डाला है, जो नगरों का नाश कर रहा है। यह विभाग मुर्गी पालन की नीतियों के भी विरुद्ध जनसंख्या घटाने का प्रयास कर रहा है… पुराने राजाओं की आत्माएँ छाती पीट-पीटकर कहती हैं: ‘कलियुग में अब कोई राजधर्म निभाने वाला नहीं बचा। कोई बनाता नहीं, सब तोड़ते हैं।’” यह कहानी बताती है कि कैसे आपातकाल के दौरान जनहित के नाम पर चलाई गई कई योजनाएँ वास्तव में जनविरोधी थीं।
इन सभी उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि आपातकाल के दौरान कविता, व्यंग्य, कहानी और उपन्यास सभी साहित्यिक विधाओं ने तीव्र प्रतिरोध दर्ज किया। साहित्य ने वही भूमिका निभाई जो राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से कही थी, “जब राजनीति डगमगाती है, तब साहित्य उसे सहारा देता है।” आपातकाल में साहित्य ने इस भूमिका को पूरी निष्ठा और साहस से निभाया।
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