30 अप्रैल 2025 को मोदी सरकार ने यह ऐलान किया कि वह देशव्यापी Caste Census कराएगी, जिससे “सामाजिक न्याय के लक्ष्यों की प्राप्ति” और “नीतियों की सटीकता” सुनिश्चित की जा सके। यह निर्णय एक लंबे समय से चली आ रही राजनीतिक मांग का प्रतिफल है, जिसे कुछ दल ‘जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व’ का आधार बनाकर प्रस्तुत करते रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या जाति की गणना सामाजिक न्याय की ओर एक निर्णायक कदम है, या यह एक ऐसी संकीर्ण राजनीति का विस्तार है जो भारतीय समाज को खांचों में बाँट कर उसकी एकता, आधुनिकता और उदार चरित्र को नष्ट करती है? यदि हम इसे गहराई से देखें तो हम पाएंगे कि यह निर्णय भारतीय गणराज्य के उस आदर्श की हत्या है, जो न्याय की प्राप्ति को वर्गीकृत पहचान नहीं, बल्कि नागरिकता की समानता पर आधारित मानता रहा है।
पहचान की अनिवार्यता और शाश्वतता
Caste Census का पहला और सबसे गहरा प्रभाव यह होगा कि हमारी सामाजिक पहचान को अनिवार्य बना दिया जाएगा। यह मान लिया जाएगा कि व्यक्ति अपनी जाति से कभी मुक्त नहीं हो सकता। इससे नागरिक स्वतंत्रता, आत्मनिर्णय और गरिमा का क्षरण होता है। भारत का संविधान इस विचार पर टिका है कि व्यक्ति अपने कर्म, शिक्षा, नैतिकता और सामाजिक योगदान से पहचाना जाए, न कि जन्म से थोपे गए जातीय दायरे से। लेकिन Caste Census इस सोच को पूरी तरह पलट देती है, यह कहती है, “आप वही रहेंगे जो आप जन्म से हैं।”
Caste Census: सामाजिक न्याय या राजनीतिक रणनीति?
मोदी सरकार के निर्णय को राजनीतिक संदर्भ में देखें तो यह केवल ‘न्याय’ नहीं, बल्कि 2024 लोकसभा चुनावों के बाद बदली हुई राजनीतिक ध्रुवीकरण की स्थिति का परिणाम है। विपक्षी दलों ने जातिगत जनसंख्या को आधार बनाकर आरक्षण की समीक्षा और विस्तार की मांग उठाई थी। इससे सरकार पर दबाव बना। जाति आधारित पार्टियां इस मुद्दे को बनाए रखना चाहती हैं। यह निर्णय एक ओर तो OBC समुदायों को साधने का प्रयास है, वहीं दूसरी ओर दलित व पिछड़े वर्गों की संख्या को आंकड़ों में समेट कर सत्ता संतुलन की राजनीति को नियंत्रित करने की रणनीति भी है। लेकिन सवाल यह है कि क्या न्याय केवल सांख्यिकीय गणना से संभव है? क्या गरीब ब्राह्मण, निर्धन बनिया, वंचित दलित सिख या वंचित पसमांदा मुसलमान इस गणना में अपनी जगह पा सकेंगे?
क्या गणना से न्याय संभव है?

यदि हम विचार करें कि सशक्तिकरण के कौन-कौन से उपाय हैं तो हम शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, भूमि सुधार, रोजगार, तकनीकी प्रशिक्षण, डिजिटल साक्षरता जैसे विषयों की बात करेंगे इनमें से कोई भी Caste Census पर निर्भर नहीं है। कुछ योजनाओं के आकलन हेतु जातियों की जानकारी जुटाना आवश्यक हो सकता है, लेकिन पूरे सामाजिक ढांचे को ही जाति के आधार पर आंकने का प्रयास भारत को एक स्थायी पहचान आधारित समाज में बदल देगा। आज जाति समाज की कई सच्चाईयों में से एक महत्वपूर्ण सच्चाई है लेकिन यह कोई अंतिम या एकमात्र सच्चाई नहीं है।
आंकड़ों का जाल और सामाजिक तनाव
Caste Census के पक्षधर कहते हैं कि ‘डाटा जरूरी है’, लेकिन यह बात एक अर्धसत्य है। सच्चाई यह है कि जब कोई डाटा राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त हो जाता है, और लाभ की नीति उसी के आधार पर बनाई जाती है, तो वह डाटा केवल आंकड़ा नहीं रह जाता वह सामाजिक व्यवहार को ढालता है। हर जाति संगठन, हर उप-जाति, हर समूह अपने लिए आरक्षण की मांग करेगा, और “हम कितने हैं?” यह प्रश्न “हम क्या हैं?” से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाएगा। इससे संविधान प्रदत्त “We the People” की भावना कमजोर पड़ जाएगी और “We the Castes” का युग शुरू हो जाएगा। इससे बाकी सभी पहचानें एक पहचान तक सीमित हो जाएंगी। इससे यह भी संभावना है कि सवर्ण जातियों ने अपनी कुल प्रजनन दर पिछड़ी जातियों की तुलना में अधिक नियंत्रित कर ली हो, और अब वे जनसंख्या वृद्धि की आवश्यकता पर बात करने लगें जैसा कि वर्तमान में दक्षिण भारत के कुछ राज्य कर रहे हैं।
क्या यह विमर्श नया है?
यह विमर्श कोई नया नहीं है। 2011 में जब मनोहन सिंह सरकार ने ‘सामाजिक आर्थिक Caste Census‘ की थी, तब भी यही तर्क दिए गए थे, लेकिन वह प्रक्रिया गंभीर विवादों, अधूरे आंकड़ों और अमूर्त निष्कर्षों में उलझ गई। उस समय कांग्रेस ने इसे नीति का साधन बताया था, आज भाजपा भी वही कह रही है। पर सवाल यह है कि क्या दोनों की राजनीति में अंतर है, या केवल अभिनय में? राजनीतिक पार्टियों में पहचान की राजनीति की होड़ है क्योंकि गंभीर सामाजिक प्रगति के कार्य करना कठिन है।
क्या इसका विरोध ब्राह्मणवाद का समर्थन है?
Caste Census के विरोध को अक्सर सवर्ण वर्चस्व के पक्ष में खड़ा होना कहकर नकार दिया जाता है। यह एक धार्मिक नैरेटिव है, तर्कपूर्ण नहीं। कोई भी विवेकशील व्यक्ति यह मानता है कि भारत में जाति आधारित भेदभाव हुआ है, और आज भी जारी है। लेकिन इस भेदभाव को ठीक करने के लिए अगर हम उसी जातीय ढांचे को और मजबूत करते हैं, तो हम बीमारी की जड़ को खाद-पानी दे रहे हैं, इलाज नहीं कर रहे। प्रत्येक आलोचना को सिर्फ ब्राह्मणवाद के चश्में से देखना भी एक बड़ी समस्या है।
राजनैतिक अवसरवाद और बौद्धिक दिवालियापन
आज की राजनीति “मूल्य आधारित नेतृत्व” नहीं, बल्कि “डेटा आधारित जनसंख्या प्रबंधन” में बदल चुकी है। आज नीति नहीं बन रही, गणना हो रही है। हमें यह सवाल पूछना चाहिए कि बिहार, तेलंगाना और कर्नाटक जैसे राज्यों में जब जातीय जनगणना हो चुकी है तो वहाँ सामाजिक न्याय से जुड़े कौन से सकारात्मक बदलाव आए हैं। दुखद यह है कि इस निर्णय पर सत्ताधारी और विपक्ष दोनों चुप हैं और देश का बौद्धिक वर्ग या तो वाम-उदारवाद के भ्रम में खोया है या राष्ट्रवाद की तालियों में। इसका दीर्घकालिक नुकसान अंततः देश को उठाना पड़ सकता है।
कौन करेगा वर्गीकरण और कैसे तय होंगी जातियाँ
Caste Census का एक व्यावहारिक प्रश्न यह है कि किस जाति को क्या नाम दिया जाएगा? हर राज्य में जातियों के नाम, उपनाम, स्वरूप अलग हैं। एक ही जाति कहीं ‘पिछड़ी’ है, कहीं ‘सामान्य’ मानी जाती है। क्या भारत सरकार इस विविधता को एकसूत्र में बाँध पाएगी? या यह एक नया जातीय संघर्ष उत्पन्न करेगा? साल 2011 की जनगणना में 46 लाख से ज़्यादा जातियाँ दर्ज हुई थीं। क्या इस बार प्रशासन इन आंकड़ों को तार्किक, वैज्ञानिक और उपयोगी बना पाएगा?
क्या यह एक नई सामाजिक रचना है?
Caste Census सिर्फ यथार्थ को दर्ज नहीं करेगी, बल्कि एक नया सामाजिक यथार्थ पैदा करेगी। राज्य जब किसी पहचान को मान्यता और लाभ देना शुरू करता है, तो वह पहचान और गहरी और राजनीतिक हो जाती है। आज जाति केवल सामाजिक ढाँचा नहीं, राजनीतिक मुद्रा बन चुकी है। और यह मुद्रा लोकतंत्र को वोटों के अंकगणित में सीमित कर रही है। इससे सामाजिक जो सामाजिक न्याय एवं उत्थान होना चाहिए था वो नहीं हो पा रहा है। उदाहरण के लिए यदि हम देखें तो देश की अधिकतर जाति आधारित पार्टियां परिवारवाद के चंगुल में फंस गयी हैं और जाति उनके लिए सिर्फ वोट लेने का एक माध्यम भर रह गया है।
जाति का अंकन या राष्ट्र का पुनरंकन?
केंद्र सरकार का निर्णय राजनीतिक दृष्टि से चालाक, लेकिन सामाजिक दृष्टि से खतरनाक हो सकता है। इससे एक ओर सामाजिक न्याय की परछाईं दिखती है, लेकिन वास्तविकता में यह एक गहरे विभाजन का मार्ग प्रशस्त करता है। यहाँ महत्वपूर्ण यह भी है देश के लगभग सभी राजनीतिक दलों में इस मुद्दे पर व्यापक सहमति दिखाई देती है। Caste Census का यह अभियान भारत को उसकी सांस्कृतिक, सामाजिक और संवैधानिक एकता से दूर ले जा सकता है।
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