Bihar में आगामी विधानसभा चुनावों से ठीक पहले शुरू किया गया Election Commission का विशेष मतदाता गहन पुनरीक्षण अभियान (Special Intensive Revision – SIR) ना केवल राजनीतिक हलकों में बहस का विषय बना हुआ है, बल्कि ज़मीनी स्तर पर आम नागरिकों में भी भ्रम और डर का कारण बन गया है। इस अभियान की घोषणा Election Commission ने 25 जून से 26 जुलाई 2025 के बीच की अवधि के लिए की है, जिसके तहत सभी बूथों पर मतदाता सूची का पुनरीक्षण किया जाना है। इसका उद्देश्य मतदाता सूची को अपडेट करना, डुप्लिकेट नामों को हटाना, और बूथ-स्तर पर मतदाताओं की संख्या को अधिकतम 1200 तक सीमित करना है।
हालाँकि इस प्रक्रिया को लेकर जिस तरह की अधिसूचना आई, वह Bihar जैसे संवेदनशील, बाढ़-प्रभावित और प्रवासी मजदूरों वाले राज्य में कई गंभीर आशंकाएँ पैदा करती है। विशेषज्ञों के अनुसार यह कदम उतना ही खतरनाक हो सकता है जितना पहले नोटबंदी या अचानक लगाया गया लॉकडाउन, जहाँ नीतिगत फैसले जनसामान्य के जीवन पर व्यापक प्रभाव डालते हैं। विपक्षी नेता तो यह भी आरोप लगा रहे हैं कि यह एक योजनाबद्ध प्रक्रिया हो सकती है जो लाखों भारतीयों से उनका सबसे मूल अधिकार — मताधिकार — छीन सकती है।
दस्तावेज़ और ज़मीनी हकीकत के बीच टकराव
Bihar की भौगोलिक और सामाजिक संरचना इस पूरी प्रक्रिया को और जटिल बनाती है। राज्य के कुल 38 ज़िलों में से 28 ज़िले बाढ़ प्रभावित हैं, जिनमें कोसी और गंडक क्षेत्र प्रमुख हैं। इन इलाक़ों में हर साल बाढ़ आने से लोगों के दस्तावेज़ नष्ट हो जाते हैं। पूर्णिया, दरभंगा, सहरसा, सुपौल, मधुबनी और कटिहार जैसे ज़िलों में यह आम समस्या है। कई बार लोगों के काग़ज़ बाढ़ में बह जाते हैं, ऐसे में उन्हें कागजात देने में समस्या आ सकती है।
पटना के दानापुर क्षेत्र की लखनी बिगहा मुसहरी बस्ती में मुसहर समुदाय के लोग रहते हैं, जो अनुसूचित जातियों में सबसे गरीब माने जाते हैं। इनकी स्थिति यह है कि अधिकांश के पास आधार कार्ड तक नहीं है। जमीनी सच्चाई यह है कि एक बड़ी संख्या में मांझी (मुसहर) लोग अशिक्षित हैं। उनके पास कोई डॉक्यूमेंट नहीं हैं। आधार तक नहीं है। वो लोग इस प्रक्रिया में शामिल कैसे हो पाएंगे।
इस प्रक्रिया में हर मतदाता को अपना नाम सूची में बनाए रखने के लिए दस्तावेज़ दिखाना होगा। कुल 11 प्रकार के दस्तावेजों की सूची आयोग ने जारी की है, जिनमें से किसी एक की प्रतिलिपि देना अनिवार्य है। इसमें पासपोर्ट, जन्म प्रमाण पत्र, जाति प्रमाण पत्र, पेंशन आदेश, वन अधिकार पत्र, मूल निवास प्रमाण, शैक्षणिक प्रमाण पत्र, सरकारी या बैंक द्वारा जारी कोई पहचान पत्र आदि शामिल हैं। लेकिन इसमें आधार कार्ड को मान्यता नहीं दी गई है, जिसे आमतौर पर सबसे सुलभ दस्तावेज़ माना जाता है।
2003 की सूची से जुड़ी छूट और नई जटिलताएँ
यहाँ एक ज़रूरी बात यह है कि जिन मतदाताओं के नाम 2003 की मतदाता सूची में थे, या जिनके माता-पिता का नाम तब की सूची में था, उन्हें किसी दस्तावेज़ की आवश्यकता नहीं होगी। Election Commission के अनुसार, इससे लगभग 4.96 करोड़ लोग दस्तावेज़ी प्रक्रिया से छूट जाएंगे। लेकिन शेष लगभग तीन करोड़ मतदाताओं को अपने नागरिकता और निवास के प्रमाण प्रस्तुत करने होंगे। यह प्रक्रिया विशेष रूप से 18 से 38 वर्ष की आयु के उन लोगों के लिए लागू होगी, जिनका नाम न तो स्वयं 2003 की सूची में था और न ही उनके माता-पिता का नाम उस सूची में दर्ज़ है। इन युवाओं को जन्म और निवास के दस्तावेज़ देने होंगे।
आयोग के अनुसार यह एक सरल प्रक्रिया है, लेकिन Bihar की ज़मीनी सच्चाई को देखते हुए यह कथन अव्यावहारिक प्रतीत होता है। Bihar सरकार के जातीय सर्वेक्षण और आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्टें बताती हैं कि राज्य में केवल 60 प्रतिशत लोगों के पास पक्का मकान है। 26.5 प्रतिशत लोग टिन या खपरैल के नीचे रहते हैं और 14 प्रतिशत झोपड़ी में। 0.24 प्रतिशत लोग तो बेघर हैं।
साक्षरता की बात करें तो सिर्फ़ 6.11 प्रतिशत लोग ही स्नातक हैं और महज़ 0.82 प्रतिशत पोस्ट ग्रेजुएट। 22.67 प्रतिशत लोगों ने केवल कक्षा 1 से 5 तक ही शिक्षा प्राप्त की है। राज्य के शैक्षणिक और दस्तावेज़ीय पिछड़ेपन को देखते हुए यह पूछना जायज़ है कि इतनी कम समयावधि में करोड़ों लोग दस्तावेज़ कहाँ से लाएँगे?
प्रवासी मज़दूरों और हाशिये की आबादी पर संकट
Election Commission ने अभी कुछ ही साल पहले 2022 में नॉलेज, एप्टीट्यूड एंड प्रैक्टिस सर्वे कराया था। इसके आंकड़ों के मुताबिक राज्य के 21 फ़ीसदी वोटर बाहर हैं। ये वो लोग हैं जो खेती-किसानी, ईंट भट्ठा, मखाना फोड़ने, चाय बगानों या निर्माण क्षेत्र में काम के लिए अपने पूरे परिवार सहित पलायन करते हैं। दरभंगा के स्थानीय पत्रकारों के अनुसार मखाना फोड़ने का काम इतना सामूहिक होता है कि कई टोले खाली हो जाते हैं और लोग ट्यूटर तक साथ ले जाते हैं। ऐसे में जब BLO घर पहुँचेंगे, तो उन्हें वहाँ कोई नहीं मिलेगा। आयोग कहता है कि BLO ‘विस्तारित परिवार’ से मिलान करेंगे, लेकिन ज़मीनी स्तर पर यह व्यवहारिक नहीं दिखता।
इसके अलावा, जो महिलाएं शादी के बाद Bihar आई हैं, उन्हें भी मतदाता सूची में बने रहने के लिए आयोग द्वारा मान्य दस्तावेज़ प्रस्तुत करना होगा। सामाजिक कार्यकर्ता यह सवाल उठा रहे हैं कि अनाथ बच्चों, ट्रैफिकिंग की शिकार लड़कियों, एकल वृद्धों और ज़मीन से वंचित नागरिकों का क्या होगा? क्या वे दस्तावेज़ न होने की स्थिति में मताधिकार से वंचित हो जाएँगे?
Election Commission की प्रक्रिया और आलोचनाएँ
Election Commission का कहना है कि यह प्रक्रिया पारदर्शिता और सहभागिता के लिए है। BLO को प्रशिक्षित किया गया है और तकनीक की सहायता से सूची में सुधार होगा। 1 अगस्त को प्रारूप सूची प्रकाशित की जाएगी और 30 सितंबर को अंतिम सूची। 98 हज़ार 498 BLO और ढाई लाख वॉलंटियर्स इस प्रक्रिया में जुटे हैं।
लेकिन एक गंभीर प्रश्न यह है कि जिस राज्य में मतदान प्रतिशत बमुश्किल 60 प्रतिशत तक पहुँचता है, वहाँ क्या लाखों लोग समय रहते दावा और आपत्ति की प्रक्रिया में भाग ले पाएँगे? क्या यह अभ्यास वास्तव में भागीदारी बढ़ाएगा?
कई विश्लेषक यह भी मानते हैं कि आयोग पहले यह कहता था कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को वोट देने का मौका मिले, लेकिन अब वही आयोग मतदाता से खुद को पालिटिकल सिटीजन साबित करने के लिए दस्तावेज़ मांग रहा है। इस प्रक्रिया के माध्यम से ऐसा प्रतीत होता है मानो व्यापक मताधिकार की अवधारणा को सीमित किया जा रहा है और संभावित रूप से दलित, अल्पसंख्यक, प्रवासी और ग़रीब मतदाताओं को प्रभावित किया जा रहा है।
लोकतंत्र या दस्तावेज़-तंत्र?
यह स्पष्ट है कि इस विशेष पुनरीक्षण अभियान ने मतदाता सूची में सुधार के नाम पर नागरिकों के बीच भय, भ्रम और असुरक्षा का वातावरण पैदा कर दिया है। यदि यह प्रक्रिया समय, संसाधन और ज़मीनी सच्चाई के साथ समन्वय के बिना चलाई गई, तो यह सिर्फ़ प्रशासनिक कवायद नहीं बल्कि लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन का कारण बन सकती है। यह ज़रूरी है कि सरकार और Election Commission यह सुनिश्चित करें कि हर नागरिक को समान अवसर और सम्मान के साथ अपने मताधिकार का प्रयोग करने का अवसर बिना भय, दस्तावेज़ीय भेदभाव और असमानताओं के मिले।
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