
Atal Bihari Vajpayi | एक बेहतरीन कवि, एक स्टेट्समैन , एक पत्रकार, बेहतरीन वक्ता एवं वाक्पटु और अजातशत्रु जैसे तमाम विशेषण पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के लिए बिलकुल सटीक बैठते हैं। उनके जीवन के कई महत्वपूर्ण पहलू हैं। अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय राजनीति के व्यास, विदुर और चाणक्य थे। इस लेख में हम अटल जी के जीवन के राजनैतिक पक्ष के विषय में बात करेंगे।
अटल बिहारी वाजपेयी का राजनैतिक जीवन 50 वर्षों से भी अधिक का रहा। अटल बिहारी वाजपेयी ने अपना पहला चुनाव 1952 में लड़ा। 1957 में वो पहली बार लोकसभा के लिए चुने गए। इसके बाद अगले 5 दशकों तक अटल बिहारी वाजपेयी के नाम का सितारा भारतीय राजनीति में धूमकेतु के समान चमकता रहा।
अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने पूरे राजनैतिक जीवन में 40 वर्ष से भी अधिक समय विपक्ष के नेता के रूप में काम किया। आज जब देश की राजनीति में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच गतिरोध बढ़ता जा रहा है ऐसे में अटल बिहारी वाजपेयी का राजनीतिक जीवन एवं विचार हमारे देश की राजनीति को नई दिशा दे सकते हैं।
विपक्ष के लिए सीख
अटल बिहारी वाजपेयी के राजनैतिक जीवन से हम यह सीख सकते हैं कि एक विपक्ष के नेता को कैसा बर्ताव करना चाहिए। अटल बिहारी वाजपेयी ने देश में विपक्ष की राजनीति को एक नई दिशा देने का काम किया। विपक्ष के नेता के रूप में उन्होने विपक्ष का काम सिर्फ सरकार विरोध करने तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि विकल्प की दिशा में काम किया। विपक्ष में रहते हुए वो अक्सर गीता के इस संदेश- “न दैन्यं न पलायनम्” – अर्थात कोई दीनता नहीं चाहिए, चुनौतियों से भागना नहीं, बल्कि जूझना जरूरी है – को दुहराते रहते थे।
उन्होने विपक्ष को प्रतिपक्ष बनाने का काम किया। जब वाजपेयी विपक्ष के नेता थे तब उनके सामने बड़े-बड़े बहुमत की सरकारें थीं। उन्होने विपक्ष के नेता के रूप पंडित नेहरू, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी एवं पी. वी. नरसिंह राव जैसे प्रधानमंत्रियों का सामना किया। 4 दशकों तक विपक्ष की राजनीति करते हुए वाजपेयी की भाषा शैली कभी भी असंसदीय नहीं हुई। उनकी भाषा में गज़ब की स्पष्टता, सहजता एवं लयात्मकता थी। वाजपेयी की हाज़िरजवाबी एवं व्यंग कहने की क्षमता भी कमाल की थी। जनसंघ के सांसद के रूप में वाजपेयी पहली बार लोकसभा के लिए चुने गए थे। उसी दौर में एक बार नेहरू ने जनसंघ की आलोचना की तो जवाब में वाजपेयी ने कहा, “मैं जानता हूं कि पंडित जी रोज़ शीर्षासन करते हैं. वह शीर्षासन करें, मुझे कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन मेरी पार्टी की तस्वीर उल्टी न देखें. इस बात पर नेहरू भी ठहाका मारकर हंस पड़े”।
साल 1984 में इंदिरा गांधी की मौत के बाद कांग्रेस को प्रचंड बहुतम मिला था। ऐसे में कांग्रेस को हराने के लिए विपक्षी गठबंधन करने लगे। वीपी सिंह को बड़ी मुश्किल से गठबंधन के लिए राज़ी किया गया। उस वक़्त एक प्रेस कांफ़्रेस के दौरान जब अटल से पूछा गया कि अगर बीजेपी के ज़्यादा सीट मिलीं तो पीएम कौन होगा? इस पर वीपी सिंह की मौजूदगी में अटल मुस्कुराते हुए बोले, ‘इस बारात के दूल्हा वीपी सिंह हैं’।
वाजपेयी ने अपने पूरे राजनैतिक जीवन में जवाहर लाल नेहरू की आलोचना की परंतु विपक्ष के नेता रहते हुए जब जवाहर लाल नेहरू की मौत हुई तो वाजपेयी ने नेहरू के बारे में टिप्पणी की थी, “एक सपना था जो अधूरा रह गया, एक गीत था जो गूंगा हो गया, एक लौ थी जो अनंत में विलीन हो गई। मानवता आज खिन्न है – उसका पुजारी सो गया।” यह दिखाता है कि अटल बिहारी वाजपेयी राजनैतिक मतभेद को मनभेद नहीं बनने देते थे।
एक विपक्ष के नेता के रूप में जब-जब देशहित की बात आई अटल बिहारी वाजपेयी ने दलहित को पीछे रख दिया। 1962 के युद्ध के समय जनसंघ के सारे प्रमुख नेताओं के साथ मिलकर वाजपेयी जी ने सरकार का साथ देने तथा कार्यकर्ताओं को देशभर में जितनी शक्ति हो उसके अनुसार सरकारी मशीनरी का सहयोग करने का निर्णय लिया। 1971 में बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के समय अटल जी पूरी तरह सरकार के साथ खड़े थे। आपातकाल के दौरान उन्हें जेल जाना पड़ा था। उस दौरान भी उन्होंने जो कविताएं लिखीं उनमें शासन की आलोचना तो है पर इंदिरा जी पर कोई सीधी निजी तीखी टिप्पणी नहीं है। देशहित को सर्वोपरि रखकर विपक्ष के नेता होने के बावजूद 1994 में उन्होने जेनेवा में भारत का प्रतिनिधित्व भी किया।
इन सबके बावजूद वाजपेयी ने अपनी विचारधारा से कभी समझौता नहीं किया। राजनीति में इतना लंबा दौर गुजारने के बावजूद वैचारिक प्रतिबद्धता रखते हुए घोर विरोधियों के प्रति भी बिल्कुल उदार आचरण एवं उसे जीवन भर कायम रखना तथा किसी से निजी कटुता न होना कोई सामान्य बात नहीं है।
गठबंधन के विशेषज्ञ
वाजपेयी ने 24 दलों को साथ लाकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए बनाया और पांच साल तक सरकार चलाई। अटल की यह उपलब्धि इसलिए भी खास है क्योंकि उनसे पहले किसी भी गठबंधन सरकार ने अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं किया था। वाजपेयी के दौर में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए की कमान हमेशा सहयोगी दलों के पास रही। एनडीए के संयोजक की जिम्मेदारी पहले जॉर्ज फर्नांडीज, फिर शरद यादव और चंद्रबाबू नायडू जैसे नेताओं ने संभाली थी। शायद इसी का नतीजा था कि एनडीए की सरकार पांच साल सफलतापूर्वक चली।
गठबंधन की राजनीति के विषय में एक बार अटल बिहारी वाजपेयी ने टिप्पणी की थी कि, “मैं इस विचार से सहमत नहीं हूं कि छोटे दल लोकतंत्र की प्रगति में बाधा हैं. छोटे दलों की अपेक्षाओं को राष्ट्रीय स्तर पर पर्याप्त महत्व दिया जाना चाहिए. भारत एक बहुभाषी, बहुधर्मी और बहुजातीय समाज है। छोटे-छोटे जातीय या क्षेत्रीय समूह अपनी पहचान बनाए रखने के इच्छुक रहते हैं. यह देश समृद्ध विविधताओं से भरपूर है। ये विविधताएं अक्सर राजनीतिक क्षेत्र में अभिव्यक्त होती हैं, हमारे समाज की इस जटिल रचना को मानने और स्वीकार करने की जरूरत है, ताकि गठबंधन सरकारें सफलतापूर्वक चलाई जा सकें।”
गठबंधन धर्म का पालन करते हुए भी अटल बिहारी वाजपेयी ने कभी भी अपनी विचारधारा से समझौता नहीं किया। एक बार संसद में जब उन्हें विचारधारा छोड़ने के लिए उकसाया तो उन्होने दृढ़ता से कहा था “न भीतो मरणादस्मि केवलं दूषितो यशः!! भगवान राम ने कहा था कि मैं मृत्यु से नहीं डरता, डरता हूँ तो बदनामी से डरता हूँ, लोकापवाद से डरता हूं!”
Conclusion
वाजपेयी की नेतृत्व शैली में अक्सर आम सहमति बनाना और महत्वपूर्ण मुद्दों पर आम सहमति तलाशना शामिल था। यह दृष्टिकोण सत्तारूढ़ दलों के लिए विवादास्पद मामलों से निपटने और विभिन्न राजनीतिक गुटों के बीच सहयोग को बढ़ावा देने के लिए एक महत्वपूर्ण सबक हो सकता है। अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय राजनीति के अजातशत्रु थे। आज की भारतीय राजनीति अटल बिहारी वाजपेयी से बहुत कुछ सीख सकती है।