एक समय था जब आर्कटिक क्षेत्र को पृथ्वी का ‘शांत’ कोना माना जाता था। धरती का यह इलाका बर्फ से ढका और जीवन से दूर था लेकिन आज यह वैश्विक शक्ति संतुलन का नया रणभूमि बनता जा रहा है। रूस, अमेरिका और अब चीन जैसे दावेदार इस बर्फीले क्षेत्र पर अपना प्रभाव जमाने की कोशिश में लगे हैं, जिससे न केवल कूटनीतिक तनाव बढ़ रहा है, बल्कि एक नई ‘कोल्ड वॉर’ के संकेत भी सामने आने लगे हैं और इस बार ‘कोल्ड’ का मतलब सिर्फ राजनीति नहीं, वाकई का बर्फीला युद्धक्षेत्र भी है। कई रिपोर्ट्स यह बताती हैं कि तेल और गैस की दौड़ ने आर्कटिक को खनन उद्योग की प्रयोगशाला बना दिया है।
पिघलती बर्फ और टूटता संतुलन
वैज्ञानिक चेतावनी दे चुके हैं कि अगर मौजूदा दर से ग्लोबल वार्मिंग जारी रही तो 2040 तक आर्कटिक हर गर्मी में पूरी तरह बर्फ़ से मुक्त हो सकता है। बर्फ का यह गायब होना जहां अमेरिका और चीन के लिए एक “नया व्यापार मार्ग” खोलने जैसा है, वहीं स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र के लिए यह विनाशकारी है।
आर्कटिक की बर्फ ही धरती के तापमान को संतुलित रखने में एक बड़ी भूमिका निभाती है। जैसे ही यह सफेद परत कम होती है, सूरज की गर्मी समुद्र में समा जाती है, जिससे वैश्विक तापमान और तेज़ी से बढ़ता है। यह ‘आइस-एल्बीडो फीडबैक’ नामक प्रक्रिया है, जो पूरी पृथ्वी के लिए खतरे की घंटी है।
आर्कटिक की बढ़ती सामरिक और आर्थिक अहमियत
आर्कटिक क्षेत्र आज भौगोलिक स्थिति और प्राकृतिक संसाधनों की वजह से सामरिक रूप से बेहद अहम हो चुका है। जैसे-जैसे ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से बर्फ पिघल रही है, नए समुद्री मार्ग खुल रहे हैं और तेल, गैस, खनिज जैसे संसाधनों तक पहुँच आसान होती जा रही है। ये स्थितियाँ बड़े देशों को वहां निवेश और सैन्य मौजूदगी बढ़ाने के लिए उकसा रही हैं। क्या यह सिर्फ भू-सामरिक महत्व है? नहीं। यह एक आर्थिक युद्धभूमि भी बन चुका है, जहां हर राष्ट्र अपने-अपने हिस्से की ‘लूट’ चाहता है।
रूस: ‘ध्रुवीय शक्ति’ की स्थिति बनाए रखने की जद्दोजहद
रूस के लिए आर्कटिक सिर्फ एक रणनीतिक इलाका नहीं, उसकी अर्थव्यवस्था का दिल है। उसके क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा आर्कटिक में आता है, और वह अपने सैन्य अड्डों को अपग्रेड कर इस क्षेत्र में अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है। कोला प्रायद्वीप में पनडुब्बियों की तैनाती और नागुरस्कोये एयरबेस का आधुनिकीकरण इसी रणनीति का हिस्सा है। रूस की चिंता दोहरी है, एक तरफ पश्चिमी देशों के सैन्य अभ्यास, दूसरी तरफ चीन की बढ़ती मौजूदगी।
अमेरिका: ‘गोल्डन डोम’ और ग्रीनलैंड पर नजर
अमेरिका की दिलचस्पी भी केवल सुरक्षा तक सीमित नहीं है। डोनाल्ड ट्रंप द्वारा ग्रीनलैंड को खरीदने की इच्छा जताना इस बात का प्रतीक है कि अमेरिका यहां स्थायी प्रभाव चाहता है। पिटुफ़िक स्पेस बेस (पूर्व में थुले एयरबेस) अभी भी अमेरिका के बैलिस्टिक मिसाइल अर्ली वॉर्निंग सिस्टम का अहम हिस्सा है। ट्रंप का ‘गोल्डन डोम’ प्लान – एक नया मिसाइल शील्ड सिस्टम – आर्कटिक को एक बार फिर से अमेरिका की रक्षा नीति के केंद्र में ले आया है।लेकिन इस प्रभाव की कीमत क्या होगी? क्या डेनमार्क और कनाडा जैसे सहयोगी देशों से अमेरिका की दूरियाँ बढ़ेंगी? यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
चीन: ‘नियर आर्कटिक स्टेट’ का दावा
चीन के पास भले ही कोई आर्कटिक तट न हो, लेकिन वह खुद को ‘नियर-आर्कटिक स्टेट‘ घोषित कर चुका है। वैज्ञानिक मिशन, आइसब्रेकिंग जहाज, और रूस के साथ संयुक्त नौसैनिक गश्त — यह सब एक बहुआयामी रणनीति का हिस्सा है। चीन के लिए आर्कटिक व्यापार, ऊर्जा और रणनीतिक प्रभाव का नया गलियारा है। पोलर सिल्क रोड के ज़रिए वह एक वैकल्पिक वैश्विक व्यापारिक मार्ग बनाना चाहता है, जो स्वेज़ नहर की निर्भरता को तोड़ सके।
ब्रिटेन और यूरोप: सीमित संसाधन, बढ़ती चिंता
ब्रिटेन ने हाल में आर्कटिक को लेकर सक्रियता दिखाई है, लेकिन संसाधनों की कमी उसकी राह में बाधा है। “स्ट्रैटेजिक डिफेंस रिव्यू” में वादा किया गया है कि पनडुब्बियों की संख्या बढ़ेगी, लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि यह नाकाफी होगा। ब्रिटेन, यूरोप और कनाडा — इन सबके लिए सवाल यह है कि क्या वे अमेरिका और रूस जैसी ताकतों के बीच अपनी स्वतंत्र रणनीति बना पाएंगे या फिर मात्र एक दर्शक बनकर रह जाएंगे?
भविष्य की आशंका
जहां दुनिया जलवायु परिवर्तन से निपटने में जुटी है, वहीं आर्कटिक एक ऐसी जगह बन गया है जहां संसाधनों की लालच, सामरिक होड़ और राजनीतिक प्रभाव की लड़ाई तेज़ हो रही है।
यह विडंबना ही है कि जिस क्षेत्र में प्राकृतिक जीवन खतरे में है, वहां ताकतवर देश हथियार जमा कर रहे हैं। यदि यही रफ्तार रही, तो यह क्षेत्र आने वाले वर्षों में दुनिया के सबसे अस्थिर क्षेत्रों में से एक बन सकता है।
आर्कटिक पर नियंत्रण की यह दौड़ केवल सुरक्षा या संसाधनों की नहीं है, यह दरअसल ’21वीं सदी की भू-राजनीतिक मानसिकता’ का आइना है — जहां सहयोग की जगह प्रतिस्पर्धा और सामूहिक अस्तित्व की जगह व्यक्तिगत प्रभुत्व हावी होता जा रहा है। क्या हम इस अदृश्य युद्ध को रोक सकते हैं, इससे पहले कि यह वास्तविक जंग बन जाए?
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