1975 आपातकाल के सामाजिक-आर्थिक कारण

आपातकाल के सामाजिक-आर्थिक कारण

आपातकाल: आर्थिक अस्थिरता और गिरावट

25 जून, 2025 को आपातकाल के 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं।  को भारत में आपातकाल लागू करना केवल एक राजनीतिक निर्णय नहीं था, बल्कि यह उस समय की बिगड़ती सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों की परिणति भी था। इंदिरा गांधी सरकार की नीतिगत असफलताओं, केंद्रीकृत नियोजन व्यवस्था और अत्यधिक राज्य नियंत्रण ने भारत को एक आर्थिक संकट की ओर धकेल दिया था, जिसका दुष्प्रभाव हर सामाजिक वर्ग पर पड़ा। सरकार द्वारा किए गए व्यापक राष्ट्रीयकरण और नियंत्रित अर्थव्यवस्था ने निजी क्षेत्र, विशेषकर लघु उद्योगों की संभावनाओं को सीमित कर दिया। 1975–76 में निजी क्षेत्र की वृद्धि दर मात्र 1% रह गई, जो गंभीर औद्योगिक ठहराव का संकेत था। भारत का व्यापार घाटा दिनोंदिन बढ़ रहा था; 1965 में देश ने ₹1,264 करोड़ का निर्यात और ₹2,194 करोड़ का आयात किया, जिससे ₹930 करोड़ का घाटा हुआ। 1966 में सरकार ने भारी वित्तीय दबाव के चलते रुपये का 57.56% अवमूल्यन कर दिया। 1971–75 के दौरान प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि तीन बार नकारात्मक रही और GDP वृद्धि दर केवल 2.14% रही।

बेरोजगारी और महँगाई का संकट

इस आर्थिक सुस्ती का सीधा असर रोजगार पर पड़ा। उत्पादन क्षमता के घटने और खपत में कमी के चलते उद्योगों ने कर्मचारियों की छंटनी शुरू की, जिससे बेरोजगारी तेजी से बढ़ी। आपातकाल के पहले वर्ष में ही लगभग 7 लाख लोगों की नौकरियाँ गईं और बेरोजगारी दर में 28% की वृद्धि हुई। इस दौर में महँगाई भी चरम पर थी, मुद्रास्फीति दर 15% तक पहुँची और 1974–75 में थोक मूल्य सूचकांक में 23.1% वृद्धि दर्ज की गई। जीवन यापन करना आम नागरिकों के लिए अत्यंत कठिन हो गया, जबकि सत्ता के करीबी कुछ उद्योगपतियों ने इस संकट को अपने मुनाफे और संपत्ति में अभूतपूर्व वृद्धि के अवसर के रूप में उपयोग किया। बंसीलाल जैसे मुख्यमंत्रियों द्वारा संजय गांधी को Maruti फैक्ट्री के लिए ज़मीन और लाइसेंस दिया गया, जबकि लघु उद्योग उपेक्षा का शिकार होते रहे।

सामाजिक विषमता और आमजन की पीड़ा

इंदिरा गांधी सरकार द्वारा सामाजिक-आर्थिक कल्याण की बजाय राजनीतिक हितों को प्राथमिकता दी गई। झुग्गियों और धार्मिक स्थलों सहित लाखों गरीबों के घर तोड़े गए, दिल्ली, लखनऊ, मुज़फ्फरनगर, रोहतक और करनाल जैसे स्थानों पर लोग बेघर हुए। 1975 से 1977 के बीच आपातकाल की अवधि में 1.1 करोड़ से अधिक लोगों की नसबंदी की गई, जिनमें से अधिकांश को जबरन इस प्रक्रिया का हिस्सा बनाया गया। इनमें से लगभग 2,000 लोगों की मौत असफल सर्जरी के कारण हुई, जो इस अभियान की क्रूरता और अव्यवस्था को उजागर करती है। संजय गांधी के नेतृत्व में नसबंदी को एक लक्ष्योन्मुख कार्यक्रम बना दिया गया, जिसमें प्रत्येक जिले को निश्चित लक्ष्य दिए गए और लक्ष्यों की पूर्ति करने वाले अधिकारियों को स्वर्ण पदकों से सम्मानित किया गया। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में ये लक्ष्य कई गुना तक बढ़ा दिए गए, जिससे अधिकारियों पर अतिरिक्त दबाव पड़ा। इस अभियान के तहत गरीबों, कैदियों, रिक्शाचालकों, छात्रों और समाज के कमजोर वर्गों को विशेष रूप से निशाना बनाया गया। सरकारी सेवाओं, वेतन, राशन कार्ड, स्कूल में प्रवेश, यहां तक कि अस्पतालों में मुफ्त इलाज जैसी बुनियादी सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए नसबंदी प्रमाणपत्र को अनिवार्य कर दिया गया, जिससे नागरिकों पर परोक्ष रूप से दबाव बनाकर उनकी स्वायत्तता का उल्लंघन किया गया।

नसबंदी को ज़बरन लागू करने के लिए तमाम सरकारी सुविधाओं को हथियार बनाया गया। वेतन, राशन, स्कूल प्रवेश, मुफ्त इलाज सभी के लिए नसबंदी प्रमाणपत्र अनिवार्य कर दिया गया। गरीब, अनपढ़, कैदी, रिक्शाचालक, यहाँ तक कि अस्पतालों में भर्ती मरीजों को भी पुलिस द्वारा जबरन नसबंदी शिविरों में ले जाया गया। इसके साथ-साथ सरकार ने दमनचक्र तेज किया। .40 लाख से भी अधिक लोगों को बिना किसी मुकदमे जेलों में ठूँस दिया गया, जहाँ अमानवीय यातनाएँ दी गईं। लोगों को बिजली के झटके, भूख, नींद से वंचित करना, मारपीट और मानसिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा।

विकास योजनाओं का दिखावा 

सरकार ने 20 सूत्री कार्यक्रम के नाम पर एक प्रचार अभियान चलाया, जिसका उद्देश्य वास्तविक कल्याण नहीं बल्कि इंदिरा गांधी की लोकप्रियता को बनाए रखना था। गरीबी हटाओ अभियान की आड़ में असल में गरीबों को ही हटाया गया। 1976 तक भारत की गरीबी दर 56% थी, और इस संकट से निपटने की जगह सरकार ने जबरन जनसंख्या नियंत्रण को प्राथमिकता दी। संजय गांधी के निर्देशों पर अनेक राज्यों में बिना सहमति के बड़े पैमाने पर नसबंदियाँ की गईं। सरकार की यह कठोर नीतियाँ गरीबों के विरुद्ध संगठित दमन बनकर सामने आईं।

जनविरोध और लोकतांत्रिक निर्णायकता

आपातकाल के सामाजिक-आर्थिक कारण

अंततः, जनता ने 1977 के आम चुनावों में इसका करारा जवाब दिया। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे अत्याचारग्रस्त राज्यों में कांग्रेस पार्टी अपना खाता भी नहीं खोल सकी। यह सिद्ध हो गया कि लोकतंत्र को स्थगित तो किया जा सकता है, किंतु समाप्त नहीं। आपातकाल का यह सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में दर्ज है, जिससे यह सीखने को मिला कि सत्ता के केंद्रीकरण और जनहित की उपेक्षा से समाज में कितना गहरा असंतोष जन्म ले सकता है।

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