Emergency 1975 के दौरान संसद में क्या हुआ था

आपातकाल के दौरान संसद में क्या हुआ था

आपातकाल के 50 साल पूरे हो रहे हैं और इस अवसर पर ये देखना बहुत जरुरी है की उस दौरान संसद किस प्रकार से चल रही थी। 25 जून, 1975 की रात भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक ऐसा मोड़ था, जब संविधान की आत्मा को छलनी कर दिया गया। “आंतरिक अशांति” का बहाना बनाकर अनुच्छेद 352 के तहत तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर दिया। राष्ट्रपति की स्वीकृति आधी रात को ली गई, जबकि मंत्रिपरिषद की जानकारी अगली सुबह दी गई। यह संविधान की स्पष्ट अनदेखी और लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों का खुला उल्लंघन था। इस घोषणा के साथ ही देश में मौलिक अधिकार स्थगित कर दिए गए, प्रेस पर सेंसरशिप लगाई गई, विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया गया और सबसे बड़ा हमला हुआ Indian Parliament की गरिमा और स्वायत्तता पर।

जब संसद को मजबूर किया गया  

आपातकाल लागू होने के तुरंत बाद संसद का जो स्वरूप सामने आया, वह गहराई से चौंकाने वाला था। संसद, जो संविधान के अनुसार विधायी, विमर्शात्मक और जनप्रतिनिधित्व का सर्वोच्च मंच है, अब कार्यपालिका की इच्छाओं की पूर्ति का मात्र औपचारिक साधन बन गई।

21 जुलाई 1975 को संसद का सत्र शुरू हुआ, लेकिन वहां लोकतांत्रिक विमर्श की कोई जगह नहीं बची थी। प्रश्नकाल संसदीय पारदर्शिता और उत्तरदायित्व का मूल होता है। उस दौरान प्रश्नकाल को यह कहकर समाप्त कर दिया गया कि इससे “समय की बर्बादी” होती है। लोकसभा में 301–71 और राज्यसभा में 147–32 मतों से यह प्रस्ताव पारित कर दिया गया। केवल वही विधायी कार्यवाही संभव थी जो सरकार द्वारा प्रस्तुत की गई हो। इस तरह संसद की भूमिका एक “रबर स्टैम्प” में बदल गई। विपक्ष को लगभग समाप्त कर दिया गया। विरोधी सांसदों को बिना किसी मुकदमे के जेल में डाल दिया गया, कुछ को कई बार जेल बदले गए।

लोकतंत्र के सिपाही: संसद में उठी प्रतिरोध की आवाज़ें

इस अंधकार के बीच संसद के भीतर कुछ आवाज़ें थीं, जो अब भी लोकतंत्र की लौ जलाए हुए थीं।

  • सोमनाथ चटर्जी (CPI-M) ने दो टूक कहा  “कानूनों को निलंबित नहीं किया जा सकता। संसद कानून बनाने के लिए है, उन्हें दबाने के लिए नहीं।”
  • एरा सेझियन (DMK) ने चेताया “संसद की कार्यवाही कार्यपालिका के अधीन नहीं हो सकती।”
  • मोहन धारिया (कांग्रेस-ई) ने कहा “प्रश्न यह नहीं कि सरकार क्या सोचती है, प्रश्न यह है कि संसद को स्वतंत्र सोचने दिया जा रहा है या नहीं।”
  • राओमो पी. सेकीरा जैसे स्वतंत्र सांसदों ने कहा कि “हम संसद में इसलिए नहीं हैं कि सिर्फ कानून पास करें, बल्कि इसलिए हैं कि देश की स्थिति पर चर्चा कर सकें।”

23 जुलाई 1975 को संसद में आपातकाल की पुष्टि के लिए विशेष सत्र बुलाया गया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसे “दुखद आवश्यकता” बताया और कहा कि “राष्ट्र के जीवन में ऐसा क्षण आता है जब कठिन निर्णय लेने पड़ते हैं।”

परंतु यह वक्तव्य उन गिरफ्तार जनप्रतिनिधियों के मौन आक्रोश के आगे असहाय था, जो या तो जेलों में थे या संसद के बहिष्कार पर मजबूर हुए। त्रिदीभ चौधरी के नेतृत्व में विपक्ष ने स्पष्ट रूप से कहा, “जब संसद स्वतंत्र नहीं, प्रतिनिधि कैद में और संवाद असंभव हो, तब उपस्थिति केवल तानाशाही को वैधता देना है।”

नाटकीय विरोध: जब संसद की दीवारें गूंज उठीं

आपातकाल के दौरान डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी को सरकार ने “वांछित अपराधी” घोषित कर रखा था। उनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी थे, और पुलिस देशभर में उनकी तलाश कर रही थी। वे भूमिगत होकर विदेश में भारत सरकार की आलोचना कर रहे थे और अमेरिका की कांग्रेस तथा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आपातकाल के दमन को उजागर कर रहे थे।

इसी बीच उन्होंने एक साहसिक योजना बनाई। उन्होने तह किया कि भारत लौटकर संसद के भीतर प्रवेश करना है, ताकि लोकतंत्र विरोधी शासन को उसी के पवित्र मंच पर चुनौती दी जा सके। स्वामी ने बेहद गुप्त तरीके से भारत लौटने की योजना बनाई। 

10 अगस्त 1976 को वे पूरी योजना के साथ संसद पहुंचे। उन्होंने पारंपरिक सफ़ेद धोती-कुर्ता और गांधी टोपी पहन रखी थी। चूंकि वे राज्यसभा सदस्य थे और अब भी औपचारिक रूप से निष्कासित नहीं हुए थे, इसलिए सुरक्षा को धोखा देकर वे संसद भवन में प्रवेश कर पाए। उस दिन स्वामी की टाइमिंग परफेक्ट थी। उस समय राज्यसभा में दिवंगत हुए सांसदों के शोक प्रस्ताव पढ़े जा रहे थे. जैसे ही सभापति बासप्पा दानप्पा जत्ती ने अंतिम शोक प्रस्ताव पढ़ा, स्वामी तमक कर उठ खड़े हुए, उन्होंने चिल्लाकर कहा, “प्वाएंट ऑफ़ ऑर्डर सर…. आपने दिवंगत लोगों में भारत के जनतंत्र को शामिल नहीं किया है..”

इससे सदन में हड़कंप मच गया और सुरक्षा कर्मियों को बुलाया गया, लेकिन इससे पहले कि उन्हें रोका जा सके, वे संसद से बाहर निकलकर सुरक्षित स्थान पर पहुंच गए। यह घटना न केवल सरकार की सत्तावादी प्रवृत्तियों के खिलाफ एक साहसी प्रतिरोध थी, बल्कि इसने साबित किया कि आपातकाल के घोर दमन के बीच भी लोकतांत्रिक चेतना जीवित थी।

असंवैधानिक तरीके से संविधान संसोधन

आपातकाल के दौरान संसद में जो विधायी कार्यवाही हुई, वह इस बात का प्रमाण है कि किस तरह कानून का इस्तेमाल लोकतंत्र की हत्या के लिए किया गया। इन संशोधनों ने न केवल संसद की स्वतंत्रता को अपंग किया, बल्कि कार्यपालिका को असीमित शक्ति प्रदान कर दी।

38वां संविधान संशोधन (1975)

आपातकाल की घोषणा, अध्यादेशों और कानूनों को न्यायिक समीक्षा से बाहर कर दिया गया। कार्यपालिका को पूर्ण प्रतिरक्षा दी गई।

39वां संशोधन (1975)

इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद प्रधानमंत्री की चुनाव वैधता को पीछे से प्रभावी बनाकर न्यायालय से बचाया गया।

40वां संशोधन (1976)

नौवीं अनुसूची में और अधिक कानून जोड़े गए ताकि मौलिक अधिकारों के उल्लंघन पर भी न्यायालय हस्तक्षेप न कर सके।

41वां संशोधन (1976)

राज्य लोक सेवा आयोगों के अध्यक्षों और सदस्यों की सेवानिवृत्ति आयु 60 से बढ़ाकर 62 वर्ष की गई । यह भी सत्ता के वफादारों को बनाए रखने का तरीका था।

42वां संशोधन (1976) “मिनी संविधान”

यह अब तक का सबसे कठोर और सर्वाधिक विवादास्पद संशोधन था।

  • संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’, ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘राष्ट्रीय एकता’ शब्द जोड़े गए।
  • मौलिक अधिकारों के ऊपर राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को प्राथमिकता दी गई।
  • कार्यपालिका को संसद और न्यायपालिका पर वर्चस्व मिल गया।
  • संसद और विधानसभाओं का कार्यकाल 5 से 6 वर्ष कर दिया गया।
  • संविधान के किसी भी भाग में संशोधन को न्यायिक समीक्षा से मुक्त कर दिया गया।

जनता की विजय

आपातकाल के दौरान संसद उस उद्देश्य से भटक गई, जिसके लिए उसे गढ़ा गया था। संसद की आत्मा कुचली गई, प्रतिरोध की आवाज़ें दबा दी गईं, और विधायिका को कार्यपालिका के अधीन कर दिया गया।

लेकिन यह दमन स्थायी नहीं रहा। 1977 में जनता ने अपने वोट से साबित कर दिया कि संसद भले अस्थायी रूप से झुक जाए, पर लोकतंत्र की जड़ें भारतीय समाज में गहरी हैं। आज, जब आपातकाल के 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं, यह आवश्यक है कि हम उस अंधकार को याद करें ताकि लोकतंत्र की यह लौ कभी बुझने न पाए।

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