25 जून 2025 को आपातकाल के 50 वर्ष पूरे हो जाएंगे। आपातकाल भारतीय लोकतंत्र का वह अंधकारमय अध्याय है, जब गणराज्य के मूलभूत मूल्यों को तिलांजलि दे दी गई, नागरिक स्वतंत्रताएँ निलंबित कर दी गईं, प्रेस पर सेंसरशिप थोप दी गई, और एक लाख से अधिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं को — जिनमें लगभग सभी प्रमुख विपक्षी नेता शामिल थे — बिना मुकदमे के जेल में डाल दिया गया। यह वह दौर था जिसे एल. के. आडवाणी ने सटीक शब्दों में इस प्रकार व्यक्त किया: “मीडिया को झुकने के लिए कहा गया, लेकिन वे रेंगने लगे।” आपातकाल के विषय पर भारत की विभिन्न भाषाओं में कहानियाँ और उपन्यास लिखे गए। जेल में बंद नेता और सामाजिक कार्यकर्ता जेल-डायरी और पत्रों के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति करते रहे। पर्चों के ज़रिये आपातकाल के अत्याचारों को जनसाधारण तक पहुँचाया गया। आपातकाल समाप्त होने के बाद भी इस विषय पर अनेक पुस्तकों और संस्मरणों की रचना हुई।
आपातकाल के दौरान जेपी के कारावास की कहानी
21 जुलाई 1975 को जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने अपनी जेल डायरी लिखना शुरू किया, जो 4 नवंबर 1975 तक चलती रही। जेल में बंदी जीवन के दौरान उनकी स्वास्थ्य देखभाल ठीक से नहीं की गई। उन्होंने अपनी डायरी ‘कारावास की कहानी’ में उल्लेख किया कि चिकित्सा सुविधा के अभाव में उन्हें स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ा। 22 जुलाई को जेपी ने अपनी डायरी में लिखा “मैं हमेशा से मानता रहा हूँ कि श्रीमती गांधी को लोकतंत्र में विश्वास नहीं है। उनके स्वभाव और विचारों से वे एक तानाशाह हैं।”
इसी डायरी में उन्होंने श्रीमती गांधी को एक लंबा पत्र भी लिखा। उन्होंने लिखा, “कृपया राष्ट्र के निर्माताओं द्वारा रखी गई उन नींवों को नष्ट मत कीजिए, जिनमें आपके पिता भी शामिल थे। जिस रास्ते पर आप चल पड़ी हैं, वह केवल संघर्ष और विनाश की ओर जाता है। आपने एक महान परंपरा, महान मूल्यों और एक कार्यशील लोकतंत्र की विरासत पाई है। पीछे केवल दुःखद मलबा मत छोड़िए। सब कुछ फिर से खड़ा करने में बहुत समय लगेगा। हालांकि मुझे कोई संदेह नहीं है कि यह सब कुछ फिर से खड़ा होगा। जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य का सामना किया और उसे पराजित किया, वे अधिनायकवाद की इस शर्मनाक विरासत को हमेशा के लिए स्वीकार नहीं करेंगे। मानव की आत्मा को कभी पराजित नहीं किया जा सकता, चाहे उसे कितना भी कुचला जाए।”
इसी तरह, चंद्रशेखर की जेल डायरी को ‘मेरी जेल डायरी’ नाम से प्रकाशित किया गया। यह पुस्तक भी आपातकाल को समझने के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज है। उस समय चंद्रशेखर कांग्रेस पार्टी के सदस्य थे और ‘युवा तुर्कों’ में गिने जाते थे। इंदिरा गांधी के तानाशाही रवैये से असहमत होने के कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 8 फरवरी 1976 को उन्होंने अपनी जेल डायरी में लिखा, “हर दिन कोई न कोई यह सवाल दोहराता है—तुम अब तक जेल में क्यों हो, सरकार तुम्हें रिहा क्यों नहीं करती? मेरे पास कोई उत्तर नहीं है, क्योंकि मेरे पास ऐसा उत्तर नहीं है जिसे समझाया जा सके। इसलिए मैं बस यही कह देता हूँ— मुझे क्या मालूम ? केवल इंदिरा गांधी जानती हैं कि वह कब तक हमें जेल में रखकर संतुष्ट होंगी। जब तक उन्हें अपनी सत्ता की पूरी सुरक्षा का भरोसा नहीं हो जाता, वे किसी को रिहा नहीं करेंगी।” चंद्रशेखर की डायरी में ऐसे कई प्रसंग दर्ज हैं। यह आपातकालीन शासन और राजनीतिक गतिविधियों को समझने के लिए एक अहम दस्तावेज है।
लाल कृष्ण आडवाणी अ प्रिजनर्स स्क्रैप-बुक
इसी प्रकार, एल. के. आडवाणी ने ‘अ प्रिजनर्स स्क्रैप-बुक’ नामक पुस्तक लिखी। इसमें उन्होंने लिखा—
“मैंने अपनी डायरी में लिखा: 26 जून 1975 शायद भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का अंतिम दिन साबित हो, जैसा कि हमने इसे समझा है। आशा है कि यह आशंका झूठी साबित होगी।”
यहाँ तक कि जेल में अपने परिवार से मिलना भी कठिन था। इसी पुस्तक में आडवाणी लिखते हैं, “सुपरिंटेंडेंट ने पुष्टि की कि मेरी पत्नी और बच्चे पिछले दिन आए थे, लेकिन वह उन्हें मुझसे मिलने की अनुमति नहीं दे सका। जेल नियमों के अनुसार रिश्तेदारों से मुलाकात की अनुमति देने का अधिकार जेल अधीक्षक के पास होता है। लेकिन केवल तीन दिन पहले राज्य सरकार ने यह अधिकार मीसा बंदियों के संदर्भ में वापस ले लिया था। अब मीसा बंदियों से मुलाकात की अनुमति गृह सचिव स्वयं देंगे।”
आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व को आपातकाल लगते ही गिरफ्तार कर लिया गया था, लेकिन इसके कई प्रचारक भूमिगत हो गए और उन्होंने इस प्रतिरोध आंदोलन को इतनी कुशलता से चलाया कि वे इंदिरा गांधी और कांग्रेस सरकार के लिए सिरदर्द बन गए। उन्हीं भूमिगत प्रचारकों में से एक थे नरेंद्र मोदी, जो आज भारत के प्रधानमंत्री हैं। आपातकाल के दौरान मोदी भूमिगत रहे और इस आंदोलन को 1978 में एक पुस्तक के रूप में दर्ज किया।
नरेंद्र मोदी की संघर्षमा गुजरात
उनकी पहली पुस्तक गुजराती में ‘संघर्षमा गुजरात’ (संघर्ष में गुजरात) शीर्षक से साधना प्रकाशन से प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक में उन्होंने एक रोचक प्रसंग का वर्णन किया है। उस समय जॉर्ज फर्नांडिस भी भूमिगत थे। आंदोलन के समन्वय के लिए उनकी मुलाकात एक अनोखे ढंग से हुई। नरेंद्र मोदी लिखते हैं, “एक पीली फिएट कार दरवाजे पर आकर रुकी। एक भारी शरीर वाला व्यक्ति, बिना प्रेस किया कुर्ता, सिर पर हरे रंग का कपड़ा, चेकदार लुंगी, कलाई पर सोने की चेन वाली घड़ी, बड़ी दाढ़ी के साथ मुस्लिम फकीर जैसा वेष धारण किए, ‘बाबा’ कहलाता हुआ, बाहर निकला, वह जॉर्ज फर्नांडिस थे। उन दिनों आंदोलनकारियों से मिलना एक हर्ष का विषय होता था। हम एक-दूसरे से गले मिले और संघर्ष में मजबूत बने रहने की प्रेरणा दी। मैंने उन्हें गुजरात और अन्य राज्यों की सारी जानकारी दी।”
अन्य प्रमुख पुस्तकें
इसी प्रकार, पत्रकार विनोद मेहता ने अपनी पुस्तक ‘द संजय स्टोरी’ में उस दौर की ज्यादतियों का विस्तृत वर्णन किया है, जिनमें मारुति कार परियोजना और उससे जुड़े घोटाले भी शामिल हैं। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपनी पुस्तक ‘द ड्रामेटिक डिकेड: द इंदिरा गांधी ईयर्स’ में लिखा कि आपातकाल को टाला जा सकता था। श्रीधर डालमिया की पुस्तक ‘द ब्रदरहुड इन सैफ्रन: आरएसएस एंड हिंदू रिवाइवलिज्म’, तपन बसु, प्रदीप दत्ता, सुमित सरकार और तनिका सरकार की पुस्तक ‘खाकी शॉर्ट्स एंड सैफ्रन फ्लैग्स’, कुमी कपूर की ‘द इमरजेंसी: अ पर्सनल हिस्ट्री’, पी.एन. धार की ‘इंदिरा गांधी: द इमरजेंसी एंड इंडियन डेमोक्रेसी’, कुलदीप नैयर की ‘इमरजेंसी रिटोल्ड’, मीसा बंदियों द्वारा जेल में लिखी गई हस्तलिखित पुस्तक ‘कालचक्र’, और ए. सूर्य प्रकाश की पुस्तक ‘द इमरजेंसी: इंडियन डेमोक्रेसी’ज़ डार्केस्ट आवर’ इन सभी में आपातकाल के उस दौर की कई अज्ञात घटनाओं का खुलासा किया गया है।
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